ज्ञान जगत का अमृत है। यह मानव की जिज्ञासाओं को शांत करता है। ज्ञान-तत्व को खोजने, मानव कल्याण एवम् उसके सुख-शांति हेतु भारतीय मनीषियों ने वेद, उपनिषद्, ज्योतिष, महाकाव्यों की रचना की है। ज्ञान आधारित वाड्गमय का सृजन भारतीय विद्वानों की विशेषता एवमं समृद्ध परम्परा रही है। इसी परम्परा में महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी जो सूत्रों में संस्कृत साहित्यों की समझ के लिये कुंजी का कार्य करती है और ज्ञान को सरल, सहज लघु एवम् सूक्ष्म रूप में कम से कम शब्दों में उनकी विशालता को अपने में समेट लेती है। ज्ञान को एक सत्ता के रूप में पहचानने, मापने एवम् उस पर आधारित साहित्यों के विभिन्न स्वरूपों का निर्धारण तथा उसकी उत्कृष्टता का मापन करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवम् चुनौतिपूर्ण, रोमांचकारी कार्य है। ग्रंथालयों की भूमिका ज्ञान आधारित वाड्गमयों को संरक्षित करना तथा उसमें रचित सूचनाओं एवम् ज्ञान को सम्प्रेषित करने की भी है। वर्तमान सूचना युग में सूचना से ज्ञान तथा ज्ञान से मनुष्य को विवेकशील बनाने तक ज्ञान आधारित वाड्गमयों का निर्धारण, वर्गीकरण मापन प्रारूप तय करना सूचना वैज्ञानिकों के लिए चुनौतिपूर्ण कार्य है। आज तक ज्ञान की कोई इकाई नही है, जिससे कहा जा सके कि एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से कितना ज्यादा ज्ञान है। इस दिशा में एक प्रयास एक महर्षि पाणिनि ज्ञान-वाड्गमय शोध-पीठ द्वारा अपेक्षित करते हुए इस पीठ की संकल्पना की गयी है।